Saturday 2 April 2016

धन विधेयक और उसका आधार



पिछली लोकसभा की संसदीय स्थाई समिति द्वारा 2010 में आधार विधेयक को जब गैरकानूनी बताया गया तो अब सरकार बदलने के अलावा ऐसा कौन सा परिवर्तन आ गया जिसे बिना किसी समग्र बहस के इसे एक “धन विधेयक” के कवच के साथ सदन मे पेश करने की जरूरत हो गयी । क्या सचमुच सरकार को राज्यसभा के विरोध का डर सता रहा था या सरकार की चुनावी मजबूरी ने लोकसभा अध्यक्ष के हाथ बांध रखे हैं । अगर ऐसा नहीं है तो क्यूँ पूर्व में जिस स्थायी समिति की रिपोर्ट जिसे दोनों सदनों ने संसद की अवमानना वाली योजना मानते हुए वापिस कर दिया था, को लोकसभा अध्यक्ष नामक संस्था तार्किकता और परंपरा के आधार पर निर्णय लेते हुए इसके धन विधेयक होने के चरित्र को खारिज कर देती है।

असल मे चुनावी राजनीति को ध्यान मे रख कर ही वंचितों को साधते हुए अनुदान वितरण का एक विरोध-रहित औज़ार तैयार किया गया है ताकि राज्यसभा इसमे कोई संसोधन नहीं करा पाये। राज्यसभा को बाहर रखने का फ़ैसला कोई विधेयक को बेहतर बनाने के लिय नहीं है बल्कि वो तो और ज्यादा बहस से ही संभव है । यही वजह है की धन विधेयक के चरित्र को देखते हुए राज्यसभा में विपक्ष ने जो संसोधन पेश किये हैं वो भी एक औपचारिकता भर लगती है । सरकार भी विपक्ष को भरोसे मे लेने के बजाय कोने मे खड़ी आक्रामक रुख दिखती हुए बचाओ की मुद्रा मे इसलेय दिख रही है की, पिछले बजट सत्र की तरह इस  सत्र में भी राष्ट्रीपती अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर विपक्ष संसोधन लाती ही नहीं बल्कि मनवाने मे भी संख्या बल के आधार पर सफल रहती है और जाहीर है कोई भी सरकार इस तरह अपनी किरकिरी नहीं करवाना चाहेगी।

राष्ट्रीपती अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव संसोधन से चुनावी लाभ नहीं मिल सकता है वहीं मुखतः वंचितों को ध्यान में रख कर अनुदान वितरण लिए बनी आधार विधेयक मे विपक्ष कोई संसोधन ला नहीं सकती और इसका का खुला विरोध उसके लिये नुकसानदायक साबित होगा, यह बात वित मंत्री विपक्ष की तरह बखूबी जानते हैं। पर क्या वो यह भी जानते हैं की जिस राष्ट्रिय नयायिक नियुक्ति आयोग के संदर्भ में उन्होने “ अनिर्वाचितों का उत्पीड़न “ वाली टिपन्नी की थी, हालांकि जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वो खुद हैं, उन्ही अनिर्वाचितों ने दल-बदल कानून के तहत लोकसभा अध्यक्ष को निर्णय करने के अधिकार को यह कहते हुए निरस्त कर दिया की इस कानून का उपयोग करते समय लोकसभा अध्यक्ष एक अधिकरण की भूमिका मे होते हैं जो किसी भी भी नयायालय के सामान है तथा उनके इस भूमिका में लिए गए निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। इस आधार पर मौजूदा विधेयक , धन विधेयक है या नहीं यह इसमे स्पस्ट  प्रस्तावित  नहीं है, धारा सात के अनुसार “आधार संख्या का प्रयोग सिर्फ अनुदान तथा अन्य सेवा के लिए किया जायगा” जो संचित निधि के उपयोग से संभव है, धन विधेयक की श्रेणी में मोटे तौर पर रखा जा सकता है पर धारा संतावन मे “आधार संख्या को किसी की पहचान, अथवा किसी भी कार्य, अथवा किसी के भी द्वारा किया जा सकता है” इसे क़ानूनन धन विधेयक नहीं माना जा सकता। तो एक असपष्ट परिस्थिति में जब लोकसभा अध्यक्ष किसी स्थापित परिभाषा से कोई अलग अपने “विवेक” से निर्णय देती है तो निश्चित ही उसकी  नयायिक समीक्षा की जा सकती है और की जानी भी चाहिए ।


विपक्ष के लिए भले ही यह कार्य बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा हो पर सामाजिक संगठनो को इसे नयायालय के सामने लाना चाहिए क्योंकि बिना स्वार्थ रहित समग्र चर्चा के किसी कानून को सिर्फ तुलनात्मक संख्या बल पर, 
तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए बना कर विधायिका मुक्त नहीं हो सकती। सरकारों की नव-उदरवाद नामक जो मूल नीति है उसमे बिना किसी परिवर्तन के यह विधेयक वंचितों की संख्या में अपनी तकनीकी खामियों के कारण और वृद्धि ही करेगी, चतुराई से गढ़ी परिभाषा कानून में नहीं होनी चाहिए क्योंकि जो प्र्त्यक्ष रूप से गलत है वो अप्रयत्क्ष रूप मे भी गलत है जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में कई अनदेखे दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। आधार संख्या भारत जैसे देश के लिए एक अच्छी कानून की भूमिका तभी निभा पायगी जब इसमे हर वर्ग और क्षेत्र के प्रतिनिधितव हो जो बिना बौद्धिक मध्यस्थता के संभव नहीं है। 

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