Monday 25 April 2016

मानवाधिकार, राष्ट्रीए सुरक्षा और न्यायिक सक्रियता: कितना राजनीतिक कितना गैर-राजनीतिक


पिछले 15 अप्रेल 2016 को भोपाल के राष्ट्रीए न्यायिक अकादमी में तीन दिवसीय कार्यक्रम मे पहले दिन उच्चतम न्यायलय के मुख न्यायधीश श्री टी॰ एस ॰ ठाकुर तथा अन्य न्याधीशों को आंतरिक और बाहरी सुरक्षा पर लगभग एक घंटे के सम्बोधन मे राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोभाल ने कहा की राष्ट्रीए सुरक्षा एक गैर राजनीतिक और गैर पक्षपातपूर्ण विषय है और इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, उन्होने कहा की न्यायिक त्वरित कारवाई के लिए न्यायलयों का अधिक से अधिक सहयोग चाहिए, राष्ट्रीए सुरक्षा के कारकों पर अपनी राष्ट्रीए योजना को विस्तार करते हुए उन्होने इस बात पर बल दिया की तकनीक, अनुसंधान तथा अन्वेषन कैसे आतंकवाद और आंतरिक उग्रवाद के खतरों का सामने करने में सहायक हो सकते है।
एक सामान्य सिद्धान्त में राष्ट्रीए सुरेक्षा का मतलब होता है लोगों की सुरक्षा न की शासन के सर्वोकृष्ट की सुरक्षा। राष्ट्रीए सुरक्षा के नाम पर आँख बंद कर के हर बार सरकार का भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि कई बार राजनीतिक और दलगत कारको की वजहों से सीमा पर या आंतरिक सुरक्षा का हवाला दिया जाता है। उदाहरण के लिए सयुंक्त राज्य और इस्राइल के साथ कथित इस्लामिक आतंकवाद से भारत की साझा युद्ध सहमति एक तरह से उनके यहाँ जैसी आतंक को आमंत्रित करने की ओर बढ़ता कदम इस लिए प्रतीत होता है की युद्ध और रक्षा के बीच एक पतली पर बहुत ही स्पष्ट लकीर होती है तथा इस मौजूदा सुरक्षा समझोते की वजह रक्षा बाज़ार और हमारी अति संवेदेनशील अन्तराष्ट्रिय सीमाओं का राजनीतिकरण की मजबूरी ही नहीं जरूरत भी  है । आतंक तो आतंक है लेकिन हर राष्ट्र में उसकी राजनीति तथा  समाधान की नीति अलग होती है। मसलन कश्मीर और उत्तरपूर्व में समाज विरोधी या देश विरोधी गतिविधियों का कारण लगता भले ही सीमा पार प्रायोजित हो पर यह पूरी तरह से हमारी सरकारों की आलोकतांत्रिक नीतियाँ है, जिनकी वजह से मानवाधिकार का हनन होना और आक्रोश या संघर्ष की जमीन का बनना लाज़मी हो जाता है, जो एक राजनीतिक प्रश्न है, जिसका ताज़ा उदाहरण कुपवाड़ा और हंदवाड़ा की घटना है जो पी॰ डी॰ पी॰ और भा॰ ज॰ पा॰ के गठबंधन के कारण इसलिए लगता है की पी॰ डी॰ पी॰ की छवि नर्म अलगाओवादी वाली है जो पकस्तीनी मुद्रा, पूर्ण स्वतन्त्रता, इत्यादि का समर्थन करती हुए उस मध्यवर्ती क्षेत्र पर अपना कब्जा बरकरार रखती थी जो मुख्य धारा की राजनीति और कट्टर अलगाओवादी के बीच की थी, लेकिन गटबंधन के बाद वो जगह खाली उसी तरह हो गयी जिस तरह अस्सी के दसक मे नेशनल कोन्फ्रेंस और कॉंग्रेस के गठबंधन  के बाद सत्ता से इत्तर  नए  मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन हुआ था और जिसके नेताओं ने हूरियत और हिजबूल मुजाहिदीन जैसी अलगाओवादी संगठनो का आधार रखा। कहने का अर्थ यह हैं की ये सारे समीकरण राजनीति की मौजूदा मांग की वजह से बनते हैं, बनते रहेंगे तथा इसका समाधान सिर्फ कानून व्यवस्था या सेना नहीं है जिनकी तैनाती लगभग पिछले पच्चीस साल से विरोध के बावजूद विशेष अधिकारो के साथ उन प्रदेशों मे है।  
ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीए सुरक्षा सलाहकार का सम्बोधन चौंकाने वाला ही नहीं अन्यायपूर्ण भी है। क्योंकि राष्ट्रीए सुरक्षा अब सिर्फ राजनीतिक या गैर राजनीतिक ना होकर शासन करने वाली राजनीतिक पार्टी के घरेलू या विदेश नीति पर निर्भर करता है। अलग अलग राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक समूहों में राष्ट्रीएता को ले कर मतभेद हो सकता है, राष्ट्रीए सुरक्षा और मानवाधिकार का अंतरसंबंध असाधारण रूप से राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक विषय या कहें समस्या है।  मानवाधिकार के सिद्धान्त और राष्ट्रीए सुरक्षा की नीति में इस बात को लेकर असहमिति है की सुरक्षा की मांग और मानवाधिकार के दावे के बीच लकीर कैसी हो तो फिर गैर-पक्षपातपूर्ण या गैर राजनीतिक बात कहाँ रह जाती है।
   हमे नहीं लगता की हमारे न्यायधीशों को राष्ट्रीए सुरक्षा सलाहकार की एकपक्षीय या पक्षपातपूर्ण सम्बोधन को सुनना जरूरी है और अगर यह जरूरी है भी तो ऐसे ही सम्बोधन का अवसर सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी मिलना चाहिए, जो हर समय संवैधानिक अधिकार के लिए उनका प्रतिनिधितव करते हैं जिनके साथ राष्ट्रिय सुरक्षा के नाम पर भेद-भाव किया जाता है। फिर ऐसा ही सम्बोधन आदिवासी, दलित, डर और असुरक्षा की वजह से सहमे और प्रतिरोध करते अल्पसंख्यक, हर समय बेघर होने का खौफ लिए झुगियों की आबादी, हाशिये पे खुदकशी करते किसान, भूमिहीन मजदूर, उत्पीड़ित महिलाओं, तथा कुपोषित बच्चों, की तरफ से भी होना चाहिए क्योंकि जिस भी नाम से इन्हे हम पहचानते हैं असल मे ये सब अपने अधिकारों और संसाधनो के असमान वितरण से  सिर्फ “ वंचित ” हैं, और इन वंचितों को भी न्यायधीशों से राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार की ही तरह “अधिक सहयोग” और “ त्वरित कारवाई “ की अपेक्षा रखने का पूरा हक़ मिलना ही चाहिये।
एक अवधारणा सी बन गयी है की मानवाधिकार राष्ट्रिय सुरक्षा की राह मे बाधक है, दलील यह की इतनी क्षति का जोखिम तो जमानती तौर पे लेना ही पड़ेगा, हर समय सिर्फ नियमों के तहत सफलता नहीं मिल सकती कभी कभी सीमा रेखा से बाहर जाना पड़ता है। परिणाम की लालसा अक्सर प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ करने पर आमादा रहती है नहीं तो  क्या सचमुच मानवाधिकार की शर्त इतनी कठिन है की इसी राज्य के नाक के नीचे ऐसी अवधारणा सिर्फ पनपती ही नहीं बल्कि अपने पूर्वाग्रहों से भरे दुराग्रहों के प्रति आग्रही भी हो जाती हैं।  राष्ट्रिय सुरक्षा सलाहकार क्या यह नहीं जानते जब नियमों का पालन नहीं होगा तो न्याय  नहीं होगा, और जब न्याय  ही नहीं होगा तो न्यायधीशों की क्या जरूरत। क्या कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों और व्यक्तियों सुरक्षा किए बिना अपनी रक्षा कर सकता है, सच तो यह है की सिर्फ लोकतान्त्रिक अधिकारो की बहाली ही असल राष्ट्रिय सुरक्षा  को सुनिश्चित कर सकती है। लोकतन्त्र पर प्रहार, अल्पसंख्यकों का राजनीतिक दुराव, आर्थिक विषमता तथा सामाजिक असौहार्द सिर्फ राष्ट्र ही नहीं दुनिया के लिए भी खतरा है, और यह बात मानव अधिकार  की सार्वभौम घोषणा मे ही नहीं हमारे संविधिन की मूल भावना मे भी निहित है, और अगर  ऐसा नहीं होता तो उसी समारोह मे दूसरे दिन के कार्यक्रम में महामहिम राष्ट्रिपती श्री प्रणब मुखर्जी को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती की न्यायधीशों को आत्म अनुशासन में रहना चाहिये क्योंकि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका  की स्वतन्त्रता को खतरा है तथा प्राधिकार की इस्तेमाल करते समय संतुलन का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये जो की एक संवैधानिक वयवस्था है प्राधिकार के इस्तेमाल में संतुलन इसलिए भी जरूरी है की विधायिका और कार्यपालिका न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं और इनकी पक्षपात रहित समीक्षा के लिए न्यायालय  का स्वतंत्र और आत्म अनुशासन में रहना पहली शर्त है। न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सिद्धान्त में निहित है और इसमे किसी तरह का अतिक्रमण नहीं होना चाहिये भले ही कोई कानून या संसोधन इसकी इजाजत ही क्यों ना देते हों।
कानूनी मामलो की बेहिसाब बढ़ती संख्या और न्यायधीशों की कमी के अत्याधिक तनाव व  दबाव में खुद उच्चतम न्यायालय का मानना है की हमारे पास इस बात के साक्ष्य और अनुभव हैं की कई मौकों पर सर्वोच्य नयायालय द्वारा कथित आतंक विरोधी कानून की संवैधानिकता तथा उसके आधार पर दिये गए फैसलों में कुछ नयायधीश राष्ट्रीए सुरक्षा को ले कर अति संवेदिनशील या न्यायिक अतिसक्रियता जैसी स्थिति में फैसला देते हैं, और ऐसा करते समय वे पूरी तरह से समझते हैं की इन क़ानूनों का कितना दुरुपयोग होता है या हो सकता है। सबसे पहले तो इसे स्वीकार करने की जरूरत हैं।  इसका उदाहरण विगत के  कुछ मृतुदण्ड के फैसलो में देखा जा सकता है जहां शायद अतिसक्रियता के कारण अपने ही मानदंडों को नज़रअंदाज़ कर फैसले लिए गए, राजद्रोह के एक मामले में अन्तरिम जमानत का फैसला लिखते समय एक माननीय नयायाधीश महोदया इतनी अतिसक्रियता के प्रभाव मे थी की नयायशास्त्र के शब्द से इतर उन्हे सिनेमा के गीत और चिकित्सा शास्त्र से शब्द उधार लेने पड़े, और तेईस पन्नो के अंतरिम जमानत के फैसले की आलोचना करते हुए कुछ कानून के जानकारों ने यहाँ तक कहा की यह एक स्मारिकीय फैसला इस संदर्भ मे है की भविष्य के फैसलो में यह ये यह तय करने मे मदद करेगा की फैसलों में  क्या नहीं लिखा जाना चाहिए। भौतिक शास्त्र से एक शब्द अगर उधार लिया जाय तो हम कह सकते हैं की यह फैसला अतिसक्रियता के  ” गृत्वाकर्षणसे मुक्त नहीं हो पाया।
-और अंत मे हरिसंकर परसाई  रचनावली के खंड दो से  एक लघु व्यंग क्रांति हो गयी जो आज की राजनीति में भी प्रासंगिक है,
एक समय किसी देश में चारों ओर क्रांति की पुकार उठने लगी ।
अन्याय पीड़ित, शोषित वर्ग के अधिकारों की मांग एकदम उभर पड़ी।
सर्वत्र एक ही मांग गूंज रही थी क्रांति ! क्रांति! क्रांति!
कारखानो के मजदूर छुट्टी के समय जब गंदे कपड़ों मे बंधी सुखी रोटियाँ निकाल उन्हे पानी के सहारे कण्ठ से नीचे उतारते तो एक ही बात कहते अब क्रांति होनी ही चाहिए।
शिक्षक पढ़ाते हुए और किसान हल जोतते हुए क्रांति की बात सोंचते।
होटल में , बाज़ार में, बसों में, रेल में, चौराहों पर चौपालों पर एक ही स्वर उठता था। क्रांति चाहिए ! क्रांति चाहिए !
कवि अपने गीतों में क्रांति का आह्वान करते।
लेखक तरुणाई को गर्म खून की सौगंध देकर क्रांति के लिए उभारते।
एक ही स्वर धरती से उठकर आसमान को छेद रहा था क्रांति ! क्रांति ! क्रांति !
राज्यसत्ता क्रांति की इस पुकार से भयभीत हुई । राजा का हृदय दहला। मंत्री घबराए। नौकरसाह सकपकाए। सत्ता, वैभब, एश्वर्य उन्हे हाथ से खिसकते नज़र आए।
राजा ने मंत्रियों को बुलाया और उनसे सलाह की। उन्होने एक तरकीब निकाली।
तीन दिनो बाद देश के तमाम अखबारों मे पहिले पृस्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में उस बड़े व्यापारी का यह वक्तव्य छपा- “क्रांति होनी चाहिए। मनुष्य को मनुष्य का अधिकार मिलना ही चाहिए। जनता की सच्ची सरकार कायम होनी चाहिए।
उस राज्य में बड़े-बड़े व्यापारियों के चिकने पन्नोवाले, सुंदर कवर के, अनेक खूबसूरत अखबार निकलते थे। सबने उसकी बात को प्रमुखता से छापा। वह बड़ा व्यापारी था। सब लोग उसे जानते थे। उसका नाम सबने सुना था। लोगों ने कहा कैसा निर्भीक है!”
बस वह सवेरे व्यापारी था, शाम को नेता हो गया।
इधर अनेक देशभक्त, क्रांतिवीर, किसानो और मजदूरों में क्रांति की तैयारी कर रहे थे।
कुछ दिनो बाद उसस व्यापारी ने तमाम व्यापारियों को मिला कर क्रांतिकारी दल की स्थापना कर ली।
और एक दिन देश के तमाम अखबारों में उस व्यापारी की विभिन्न तसवीरों के साथ छापा- क्रांति हो गयी ! राजसत्ता पलट गयी !राजा गद्दी से उतार दिया गया ! क्रांतिकारी दल ने सरकार को खरीद लिया। अब जनता के सच्चे प्रतिनिधि क्रांतिकारी दल का राज्य होगा। 
अखबारों में बात छपी तो सर्वत्र फैली और गूंजी- क्रांति हो गयी !, क्रांति हो गयी !
और लोगों ने सोंचा अब करने को क्या रह गया? क्रांति तो हो गयी ।
और सर्वत्र मरघट सी मुर्दानि छा गयी। लोग निष्क्र्यि हो गए। सब पहले जैसा ही चलता रहा। राजा वही, मंत्री वही, नौकरशाही वही। वही अन्याय, वही शोषण, लेकिन लोग शान्त। उन्होने मान लिया की क्रांति हो गयी ।
और इधर क्रांति करने वाले वीर सोंचने लगे यह क्रांति बिना किए कैसे हो गयी !

  
  

    

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