Saturday 20 February 2016

जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय:- बोलने के बाद की आजादी ...


कहते हैं राजनीति की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती है बल्कि अलग अलग विचारधाराओं की राजनीति होती है। तो सवाल यह है की आखिर ये विचार कहाँ से आते हैं, जाहीर है विचार का उत्स ज्ञान और अनुभव है वैसे ही जैसे श्रम पूंजी और धन का उत्स है। ज्ञान का पहला अनुभव हमे परिवार से होता है, फिर अपने आस-पास के समाज में इसका विस्तार होता है। इसी ज्ञान को और गहराई देने मेँ शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वही शिक्षा जो सदियों के मानव अनुभव का उस तात्कालिक समय में निचोड़ होता है और जैसे जैसे नये अनुभवों से हमारा सामना होता है इन निचोड़ों के रंग और स्वाद मे बदलाव आता रहता है, और इसिलेय शिक्षा कभी पूरी नहीं होती। इन रंगों और स्वाद का बेहतर परख और पहचान करने में सिक्षण संस्थान अपनी भूमिका एक राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में निभाते हैं, राजनीति इसलिया क्योंकि हर वो बात जिसका संबंध मानव प्रजाति से है, उत्पाद और उत्पादकता से है, वो राजनीति है। प्र्योगशाला मे चर्चा तथ्यों ओर तत्वों की होती है, वो प्र्योगशाला भी उन्ही तत्वों के मिश्रण से बनती है पर चर्चा में कभी प्र्योगशाला नहीं होती बल्कि उनका मूल्यांकन इस आधार पर होता है की उस प्र्योगशाला में किस हद तक प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि उन्हे चर्चा में लाने का अर्थ है चाँद की तरफ इशारा करने वाली अंगुली में ही दोष-गुण  निकालना इससे प्रयोग का समीकरण बिगड़ जाता है, संदर्भ बदल जाता है।
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय में एसे ही कुछ बिगड़ते समीकरण को हम अनुभव कर रहें हैं, प्रयोग से अधिक प्र्योगशाला ज्यादा चर्चा में है। आखिर एसे कौन से प्रयोग हैं जिसका सामना करना असहज प्रतीत हो रहा है, और जिनके धमाकों के शोर ने  उसकी तरफ देखने को मजबूर किया है। इस विशवास के होते हुए भी की कोई भी विषफोट इस प्र्योगशाला को हिला नहीं सकता हम उसकी टूटी खिड़की और दरवाजों को ढुढ़ने में लग गए। ऐसा करते समय हमारे उस भरोसे का क्या हुआ जिस पर इन प्र्योगशालाओं की आधारशिला हमने रखी थी। क्या हम ऐसा मानते हैं की इनके निर्माण मैं जो ज्ञान और अनुभव हमने लगाया है उन विचारों में किसी तरह की कोई मिलावट थी। शायद नहीं, क्योंकि लकड़ी के पात्र में लोहे को नहीं पिघलाया जा सकता है। अहिंसा के विचार से किसी साम्राज्य को उखड़ते पूरी दुनिया ने देखा है,  इसलिया हम जानते हैं इन प्र्योगशालाओं में अनघड़ इस्पात कैसे पिघल कर रूप लेता है।
अब उस प्रयोग की बात करें जिनकी चर्चा हम यहाँ कर रहें हैं , इसके लिए समय में कुछ पीछे देखे तो बात 1980 की है जब माननीय उचत्तम नयायालय की एक संविधान पीठ जिसमे नुयुन्तम पाँच नयायधीशों का होना जरूरी है, का गठन यह तय करने के लिये हुआ की क्या आज की परिसतिथी में क्या मृतुदण्ड उचित है, और अगर उचित है तो इस विषय में दिशा निर्देश तय किया जाय।  मृतुदण्ड के संबंध में बचन सिंह मामले की संवैधानिक पीठ ने यह तय किया की “अदालतों को “अग्रिवेटिंग” (उतेजक) तथ्य  तथा  “मिटिगेटिंग” (गंभीरता कम करने वाली परिस्थितियाँ ) तथ्य का आकलन करते समय सिर्फ अपराध ही नहीं बल्कि अपराधी की भी   पारिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिये”, कानून के मुताबिक उम्रक़ैद एक नियम है तथा मृतुदण्ड एक अपवाद,  नयायधीशों को ब्लड थ्र्स्टी (खून का प्यासा) संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र राज्य/ पारा 84 पेज नंबर 24 क्रिमिनल अपील नंबर 1478/2005 और 452/2006) नहीं होना चाहिये, इत्यादि। माननीय उचत्तम नयायालय ने जो फ़ैसला 1980 मे दिया था उसके बाद यह अपेक्षा की जाती है की बाद के मृतुदण्ड संबन्धित फैसलो मे उन क़ानूनों का पालन किया जायगा या उस दिशा निर्दशों की समीक्षा करने के लिये एक नये “सात “ या अधिक नयायधीशों की संविधान पीठ का गठन किया जाय। पर आदेश की समीक्षा करने के लिये अभी तक ऐसा कोई गठन नहीं हुआ है तथा माननीय उचत्तम नयायालय के पाँच नयायधीशों की संविधान पीठ द्वारा दिया गया दिशा निर्देश एक बाध्यता है, एक लागू कानून है।
यहाँ यह जानना जरूरी है की 1983 में माची सिंह बनाम राज्य ,1996 में राबजी बनाम राजस्थान सरकार, तथा 2009 में संतोष बरियार बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामलों में खुद माननीय उचत्तम नयायालय ने स्वीकार किया की बचन सिंह दिशा निर्दशों का पालन नहीं हुआ है। माननीय उचत्तम नयायालय ने 2009 के संतोष बरियार मामले में यह भी कहा की पिछले 9 वर्षों में कम से कम छह एसे मामले हैं जिनमे दिशा निर्देशों का सिर्फ ध्यान ही नहीं दिया गया बल्कि न्यायिक सिद्धांतों के आधार पर बनी परंपरा को नज़रअंदाज़ कर के ये फैसले “पर इंकुरियम” ( परम्पराओं को नज़रअंदाज़ कर लिए गए फैसले ) में दिये गए हैं।
याक़ूब के फैसले पर  देश भर मे हुए कई बहसों से ये बात निकाल कर आई की इस मामले मे कई “मिटिगेटिंग”  तथ्य थे, जिनका अगर ध्यान रखा जाता तो शायद फैसला कुछ और हो सकता था, उदाहरण के लिये, टाड़ा कोर्ट ने उसकी सजा 30 अप्रैल  2015 को सुनाई लेकिन इसकी सूचना उसे 14 जुलाई  2015 को दी गयी, सूचना मे देर करना माननीय उचत्तम नयायालय के शत्रुघन चौहान मामले के अनुसार अवैध है, श्री बी॰ रमण जो रॉ में पाकिस्तान डेस्क के एक प्रमुख थे जिनकी मृत्यु के बाद उनका लेख 24 जुलाई 2015 को प्रकाशित हुआ उसमे उन्होने उसके सहयोग का जिक्र किया है तथा यह भी माना है की उसके सहयोग से नेपाल से उसकी अनओपचारिक गिरफ्तारी ( औपचारिक रूप से दिल्ली में ) तथा उसके परिवार का पाकिस्तान में समर्पण तथा भारत वापसी संभव हो पायी थी, टाड़ा कोर्ट के फैसले में अन्य सहयोगियों के बयान के अलावा  उसके बयान को ही मुख्य आधार बनाया गया है, उसने अपने दया याचिका में कहा की जेल के डाक्टरों के जांच और प्रमाणपत्र के अनुसार वह “स्खिजोफ़्रेनिया” (एक प्रकार का दिमागी असंतुलन) नामक बीमारी से ग्रसित है तथा माननीय उचत्तम नयायालय ने इस बीमारी को मानसिक बीमारी माना है तथा मृतुदण्ड के लिये उपयुक्त नहीं है, टाड़ा कोर्ट ने अन्य अभियुक्तों को उम्रकैद दिया है जबकि उसकी संलिप्तता मुख्य न हो कर सहयोग की थी, विरप्पन,भुललार, राजवाना, तथा राजीव गांधी हत्या के तीन अपराधियों की सजा उम्र कैद में बदल दी गयी है, इत्यादि । ये सारी बातें माननीय उचत्तम नयायालय की व्याख्या के तहत “मिटिगेटिंग” तथ्य के अंतर्गत आते हैं, और इन्हे ध्यान में अगर नहीं लिया जाता है तो फैसला “पर इंकुरियम” मे लिया गया है।
     तमाम अन्य तरह की चर्चा और बहस के लिये हमारे विश्वविधालय एक प्र्योगशाला की भूमिका निभाते हैं, जहां गलतियों को करने का अधिकार दिया जाता है। जैसा की तर्क दिया जाता है कि विश्वविधालय जनता के पैसों से संचालित होती है इसलिए यहाँ राजनीति नहीं होनी चाहिये, पर कोई ये बता दे राजनीति एक शास्त्र है और उसकी प्रायोगिक अभ्यास यहाँ नहीं किया जा सकता तो इस पृथ्वी पर और कहाँ संभव है। बल्कि ये कहें की यहाँ की गलतियों को किसी भी आलोचना और सज़ा से दूर रखा जाना चाहिये, अनुशासन पालन करवाने की कई और तरीके हो सकते है, सबसे बेहतर तो आत्मानुशासन हे हो सकता है, गांधी भी इसी की सिफ़ारिश करते थे। हमे यह ध्यान रखना चाहिये की राज्य को प्रतिक्रयवादी विचारधारा से कभी कोई खतरा हो ही नहीं सकता इससे जीवंतता बनी रहती है, सबसे बड़ा खतरा तो लोकतन्त्र ( लोगतंत्र नहीं ) को तब है जब कोई प्रतिक्रीया नहीं होती है। किसी प्रतिक्रया को दबाने के लिया भय का सहारा लिया जाता है, जहां भय होगा वहाँ विचारों का दमन होगा, जहां दमन होगा वहाँ नफरत होगा, और नफरत राज्य को अस्थिर करता हैं। इसके विपरीत निर्भयता के माहौल में बहस से विचार निकलता है तथा नफरत और दमन की अनुपस्थिति में राज्य ज्यादा स्थिर होता है । कुछ भी सोंचने और कहने की आज़ादी का सीधा संबंध हमारी प्रगति से जुड़ा है, और बिना इसे  सुनिश्चित किए राज्य अपने लक्ष्य को हासिल नहीं सकता । यह जानते हुए की हमारे सोंचने और बोलने के कुछ गंभीर खतरे हैं, सिर्फ इसलिए प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता, देशद्रोह तो बहुत दूर की बात है। देशद्रोह के जिस कानून को जहां से हमने लिया है उसने इसे समाप्त कर दिया है।
जब हम दुनिया के सबसे आधुनिक तकनीक को इस्तेमाल करने में गर्व महसूस कर सकते हैं तो तो उस राष्ट्र के सिद्धांत पर हम इतने रूढ़िवादी क्यों हैं जिनकी अवधारणा हमने पश्चिम से ही आत्मसात किया है। हमारी राष्ट्रिय भावना इतनी कोमल क्यों हैं की जिनके चलते हमारे विरोध इतने कठोर हो जाते हैं। राष्ट्र की अवधारणा हमारी उतनी ही नयी और पश्चिमी है जितनी हमारी भूमंडलीय अर्थवयवस्था, राष्ट्र के रूप में हम अभी परिपक्व नहीं हैं, पर पश्चिम के समाज ने हमारे आज के संदर्भ  को बहुत पहले अनुभव किया है इसीलिए हमारी जरूरत उनके अनुभवों को भी कुछ हद तक आत्मसात करने की है। भारत की विविधता अपनी व्यापकता की वजह से पूरी दुनिया में अकेली है इसलिए दुनिया भर से राष्ट्र निर्माण के अनुभव से हमें सीखने की जरूरत है। हमारी कमजोर अर्थव्यवस्था, शिक्षा के गिरती हालत, बीमार स्वास्थ सेवा, किसानो की अत्महत्या, तथा अन्य मौजूदा  समस्या हमें कोमेल भावना और कठोर विरोध की इजाजत नहीं देते हैं, ये बात हम जितनी जल्दी समझ पाएंगे  उतना ही बेहतर है।
अंत में – मशहूर पत्रकार पी साईनाथ ने पिछले दिनो एक वृतचित्र प्रदर्शित की “नीरो गेस्ट“।  विद्धर्भ मे किसानो की अत्महत्या पर बनी यह वृतचित्र गहरा प्रभाव छोड़ती है। रोमन इतिहासकर “टेसीटस” ने अपने इतिहास की पुस्तक दी अनेल्स  ऑफ टेसीटस **  के पन्द्र्वहे अध्याय मे नीरो और जलते रोम का जिक्र करते हुए कहता है “नीरो अपने शाम के तमाशे, मनोरंजन, तथा रात्री भोज के लिये अपने बगीचे में  हर “उस” को आमंत्रित करता था जो रोम मैं “कुछ” था। पर उन बगीचों मे एक समस्या थी, की शाम ढलते ही वहाँ अंधरा छा जाता था, और रौशनी का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाता था। तो कैसे उसने इस समस्या का समाधान निकाला। जैसा की टेसिक्स और उसके अन्य समकालिक इतिहासकारो ने दर्ज़ किया है की शाम के मनोरंजन के बाद जब  रात का अंधेरा बढ़ता था तब उसके बंदीगृह मे कैद “अपराधियों” को  सलीब में चढ़ा कर जला दिया करता था ताकि रात रौशन हो सके। “टेसीटस” के अनुसार समस्या नीरो नहीं था, क्योंकि वो भी अपने पुर्वर्ती रोमन शासको की ही तरह था जिनके आदेश पर कई गुलामो को खेल के नाम पर भूखे शेर के सामने डलवा दिया जाता था, समस्या थे नीरो के वो आमंत्रित मेहमान। आखिर कौन थे वे? वे उसी समाज के तो थे, कैसी मानसिक अवस्था और स्थिति की जरूरत होती है किसी को ऐसे कार्य को करने या देख पाने के लिए ? वो कलाकार थे, लेखक थे, व्यापारी थे, सैनिक थे, यानि सारी रोमन बौद्धिकता वहाँ उपस्थित रहती होगी, जिनकी भय, लालच या लाचारी की खामोशी उन आयोजनो को सफल बनाती होगी।  
कहने का अर्थ यह है निर्भीक होना और ऐसी किसी भी रात्री भोज मे अपना विरोध दर्ज कराना ही समृद्ध, प्रागितिशील और कुशल राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसीलिए सोंचना और खुद को व्यक्त  करना हमें सीखना होगा। संविधान ने हमे बोलने की आज़ादी दी है, पर बोलने के बाद की आजादी सुनिश्चित करना तो राज्य का काम है।


**( अनेल्स  ऑफ टेसीटस इंटरनेट क्लासिक आर्काइव पर अल्फ़ेरेड जॉन और विलियम जेकसन द्वारा अँग्रेजी अनुवाद निशुल्क उपलब्ध) 

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