Friday 23 October 2015

संवैधानिक : राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग या सर्वोच्य नयायालय

संवैधानिक : राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग या सर्वोच्य नयायालय
पिछेले दिनों राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग को शीर्ष नयायालय ने कहा कि यह असंवैधानिक है । क्या एक चुनी हुई सरकार नयायधीशों का चयन नहीं कर सकती या नहीं करना चाहिये, जबकि पहले (1993 तक) सरकारें ही नयायधीशों का चयन करती थीं। उधर सरकार का कहना है कि नयायधीशों कि निययुक्ति एक विधायी कार्य है और इससे नयायपालिका में अतिक्रमण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिय, बल्कि यह अधिकार तो विधायिका के पास पहले से थे जो 1993 के बाद कोलोजियम व्यवस्था के तहत नयायपालिका को चला गया, संसद उसी परंपरा को पुनर्स्थापित कर रही है, राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग से नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी तथा एक नयी व्यवस्था स्थापित होगी।
आखिर क्या है हमारा संविधान? लोगों कि अभिवयक्ति या बहुमत कि अभिवयक्ति? क्या बहुमत से यह सिद्ध हो सकता है? क्या है संतुलन का सिद्धान्त? क्या संविधान  असंतुलित है या पूरी तरह से संतुलित? शायद दोनों ही क्योंकि यह जड़ नहीं लचीला है और यही इसे लोगो कि संतुलित अभिवयक्ति बनाती है। यह एक खाली पात्र है। जिसमे अलग अलग समय के समाज के मूल्यों के आधार पर भरा जाता है, बिना बर्तन कि बनावट में किसी प्रकार कि परिवर्तन किये हुए। इस पात्र का मुख्य आधार नीति निर्देशक तत्व है जो इसकी मूल बनावट  (भावना) को सुरीक्षित रखती है। राज्य को चलने चलाने के लिए उन्ही नीतियो के तहत  कार्यक्रम कि जरूरत होती है, जिनका आधार संविधान कि मूल भावना होती है।
अगर समय में थोड़ा पीछे 1967 तक देखें तो खंड 3(बुनयादी अधिकार) में धारा 13(2) के अनुसार संविधान में संसोधन कानून नहीं था, पर गोलकनाथ मामले के फैसले में  शीर्ष नयायालय ने कहा कि संवैधानिक संसोधन एक कानून है और इससे अगर बुनयादी अधिकार पर प्रभाव पड़ता है तो इसकी नयायिक समीक्षा कि जा सकती है,। इस मामले में नयायालय ने पाया कि उस बर्तन कि बनावट में परिवर्तन कि कोशिशें दिखतीं है और यहाँ  बुनियादी अधिकार का उलंघन होता प्रतीत होता है। आर्थत जबतक सबकुछ सामान्य है तब तक आदर्श स्थिति मानी जा सकती है लेकिन नीति निर्देशक तत्वों को बहाल रखने के लिये  बुनयादी अधिकारों में अगर कोई संसोधन लाया जाता है तो यह सुनिशित करना चाहिय कि संविधान कि बुनियादी बनावट या सिद्धान्त मैं कोई परिवर्तन न हो। नयायालय ने अपना यही दृष्टिकोण केशवानन्द भारती केस (1973) में बरकरार रखा।
यहाँ यह जानना जरूरी है कि धारा 124 एक सम्मिलित रूप में सर्वोच्य नयायालय, मुख्य नयायधीश के साथ सात (7) अन्य नयायधीश कि स्थापना को सुनिश्चित करता है। संसद को संसोधन कानून के माध्यम से नयायधीशों कि संख्या को बढ़ाने का प्रधावन है, जिसे नंबर ऑफ ज्जेस एक्ट 1956 को 1986 में संसोधित कर 25 तथा 2008 में 30 किया गया है। जहां तक मुख्य नयायधीश कि नियुक्ति  का विषय है वो वरिष्ठता कि वरीयता के आधार पर होता है। वहीं धारा 124(2) में सर्वोच्य नयायालय के नयायधीशों कि नियुक्ति मुख्य नयायधीश से सलाह के साथ नहीं सलाह के बाद करने कि प्रक्रिया है, सरकार मुख्य नयायधीश से सलाह कर केबिनेट के माध्यम से राष्ट्रपति को प्रस्ताव भेजता है तथा राष्ट्रपति उस प्रस्ताव के आधार पर कार्य करते है न कि निर्णय लेते हैं।
 सर्वोच्य नयायालय के एस पी गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (AIR1982 SC149) में नयायधीशों कि नियुक्ति को लेकर उनके नाम के चुनाव के बाद उनपर सहमति और नजरियों के आदान प्रदान को प्रक्रिया में लाया गया लेकिन यह कोई बाध्यता नहीं थी। बाद में 1993 को सुप्रीम कोर्ट एडवोकट ऑन रिकॉर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, के  फैसले में नयायधीशों को नियुक्त  करने करने का अधिकार पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया तथा निरंकुसत्ता  से बचने के लिय मुख्य नयायधीश के अलावा दो अन्य वरिष्ठतम नयायधीशों को नयायधीशों कि नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल किया। इस प्रक्रिया को अपनाने और कुछ विवादों के आने के बाद राष्ट्रपति ने धारा 143 के आधार पर कुछ सुझाव दिये, जिसपर नयायालय ने अपनी राय ( spl. Ref. No. 1 of 1998 on 28 oct. 1998[(1998)7n scc 739] दी तथा दो अन्य वरिष्ठतम नयायधीशों से सलाह कि संख्या को बढ़ा कर चार कर दिया, साथ में यह भी सुनिशित किया कि किसी दो के द्वारा अगर किसी नाम पर समहती नहीं होती है तो उस नाम को नहीं भेजा जायगा। अर्थात किसी नाम को भेजने के लिए सर्वसम्मति या मुख्य नयायधीश को मिला कर तीन कि सहमति होनी चाहिए।
1973 के केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था बुनयादी अधिकार कि परिभाषा समय, मूल्य, प्रतिबंध,तथा अनुभव ईत्यादी के प्रकाश में देखा जाना चाहिय। संविधान सभा ने इसिलिय इसे लचीला रखा है। अब अगर केशवानन्द भारती केस के आधार पर देखा जाय तो यह संविधिनाक संसोधन पूरी तरह से असंवैधानिक प्रतीत होता है क्यूंकि यह संविधान कि बुनियादी बनावट या सिद्धान्त का उलंघन है। 1993 को सुप्रीम कोर्ट एडवोकट ऑन रिकॉर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (AIR 1994 SC268)कि सुनवाई के बाद नौ जजों का जो फैसला था वो संविधान के एक बुनयादी ढांचे कि खोज पर आधारित थी जो व्यवस्था को सुरीक्षित रखते हुए चलाने के लिए व्यवस्था में रखी गयी थी, और वो थी संविधान कि सबसे छोटी लिखित धाराओं में से एक, खंड IV, नीति निर्देशक (directive principles of state policy) कि धारा 50, जो राज्य को जन सेवा के लिया नयायपालिका को कार्यपलिका से अलग रखने को कहता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नयायधीशों को समाज में शामिल नहीं होना चाहिय या उनको अलग समाज में रहना चाहिय बल्कि इसका सिर्फ ये अर्थ है कि सिवाय सिर्फ सलाह देने के, जजों कि नियुक्ति का कार्य किसी भी परिस्थिति में कार्यपलिका पर निर्भर नहीं होना चाहिय।
एक तर्क यह भी है कि चुनाव आयोग, भारत के महालेखा नियंत्रक या अन्य कोई संवैधानिक संस्था के प्रमुखों कि नियुक्ति भी तो सरकार ही करती है उसे भी तो क्या अतिक्रमण ही समझा जायगा। दूसरा तर्क कि एक चुनी हुई सरकार जिसको जनता का विशवास हासिल है और लोकतन्त्र में जनता कि भावना का सम्मान होना चाहिय, इसिलिय यदि संसद किसी संसोधन को ले कर आती है तो उसे बरकरार रखना चाहिय। और भी कई तर्क दिया जा सकता है, दिया भी जा रहा है, जैसे नयायपालिका को कानून बनाने का नहीं उसकी व्याख्या करने अधिकार है, या भारतीय लोकतन्त्र अनिर्वाचितों द्वारा उत्पीड़ित नहीं हो सकता। 
संविधान संसोधन कि जो व्याख्या सर्वोच्य नयायालय ने केशवानन्द भारती फैसले मेँ कि जो अगले किसी बदलाव तक लागू कानून ही रहेगा, और उस आधार पर मौजूदा संसोधन असंवैधानिक, तथा राष्ट्रीय नयायिक नियुक्ति आयोग का गठन गैरकानूनी है क्योंकि आयोग का गठन बिना संविधिनाक संसोधन के संभव नहीं है।  
मनुष्य अकेला नहीं रह सकता इसलिय वो समाज बनाता है, और फिर समाज को संचालित करने को राज्य का निर्माण करता है, नयायपालिका उसी राज्य का एक स्तम्भ है। शासन के विकल्पों में निर्वाचित लोकतन्त्र को हमने अपनाया है पर आपसी सहमति के अलावा न्याय का कोई विकल्प नहीं है बल्कि इसमे किसी तरह की “वीटो” अपने आप में अन्याय है, इसलिय “अनिर्वाचितों द्वारा उत्पीड़न” का नजरिया रखना सही नहीं लगता, लोगो कि भावना संविधान है बहुमत या अल्पमत से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है, और  जहां तक दूसरे सारे संवैधानिक संस्था के प्रमुखों कि नियुक्ति का प्रश्न है नयायपालिका के अलावा सभी का कार्य विधायी ही है न कि नयायिक इसलिए विधायी प्रमुखों कि नियुक्ति कार्यपलिका का ही कार्य है तथा उससे संस्था के कार्यों पर प्रभाव नहीं पड़ता है। तर्कों को अगर समझा जाय तो नाम से ही स्पष्ट है कि प्रस्तावित कानून सिर्फ नयायधीशों कि नियुक्ति, पदस्थपना और तबादले को ध्यान में रख कर कि गयी है। इसका मुख्य मकसद 1993 के बाद बनी कोलोजियम व्यवस्था को हटाना मात्र है, प्रस्तावित कानून का नयायिक सुधार से संबंध नहीं है, क्योंकि पुरानी नियुक्तियों की आपातकाल और अन्य मौकों पर आलोचना हुई तथा वर्तमान कोलोजियम व्यवस्था में भी नयायधीशों की आलोचना होती है, सर्वोच्य नयायालय ने खुद स्वीकार किया है तथा सुझाव भी मांगे हैं, अर्थात दोष व्यवस्था में नहीं है, नयायधीश गलत हो सकते है, और शायद होते भी रहेंगे। हो सकता है कि कोलोजियम का जन्म नयायपालिका से ही हुआ है, और ये उस समय के संविधान कि व्याख्या के आधार पर ही अस्तित्व में आया, लेकिन तमाम कमियों के बावजूद आज यह एक लागू व्यवस्था है जो संविधान कि मूल भावना, मुखयतः नयायपालिका कि अपनी सर्वोच्यता और नयायिक नियुक्ति कि स्वतन्त्रता, का सम्मान करता है।

Shashi sagar verma
Member- PUCL

     

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